रुद्रपुर: 7मई 2023रविवार/तापस विश्वास
एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
किताबों के बाजार में चल रहे कमीशनखोरी के खेल में पापा की जेब भले ही कट रही है, लेकिन स्कूलों की तिजोरी का वजन लगातार बढ़ रहा है। एक तरफ शिक्षा को हर घर तक पहुंचाने के लिए शिक्षा का अधिकार जैसे कानून लागू हैं। दूसरी तरफ शिक्षण सामग्री की बढ़ती कीमतों से अभिभावकों पर बोझ बढ़ता ही जा रहा है। अधिक शिक्षण शुल्क और किताबों व स्कूल ड्रेस के नाम पर कमीशनखोरी से अभिभावकों की कमर टूट रही है। उच्च शिक्षा की बात तो कुछ और ही है। पढ़ाई की शुरुआत करने वाले बच्चों पर भी इतना खर्च हो रहा है कि घर का बजट इन्हीं चीजों पर जा रहा है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने में सक्षम नहीं हैं। मध्यम वर्ग के लोग निजी स्कूल की ओर रूख करते भी हैं तो उन्हें आर्थिक रूप से शोषण का शिकार होना पड़ता है। इन दिनों स्कूलों में दाखिले का दौर चल रहा है। ऐसे में दाखिला शुल्क, स्कूल ड्रेस, कॉपी, किताब और अन्य जरूरी चीजों के खर्च को मिलाकर हिसाब किताब की जो लिस्ट अभिभावकों को मिल रही है उसे देखकर तो दिन में ही तारे नजर आ रहे हैं। दुकानदारों का भी कमीशन फिक्स है। तभी तो शिक्षण सामग्री में अभिभावकों से लिए जाने वाले अधिक शुल्क का एक हिस्सा शिक्षण संस्थानों को भी जा रहा है।
नए सत्र में प्रवेश शुरू होते ही शहर के प्राइवेट स्कूलों में किताब लेने के नाम पर अभिभावकों को जमकर चूना लगाया जा रहा है। स्कूल वाले हर साल किताब बदल दे रहे हैं। कमीशन के चक्कर में नियमों का खुलेआम माखौल उड़ाते हुए निजी प्रकाशकों की ही किताबें लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। आलम यह है कि छात्रों के प्रयोग में आने वाली स्टेशनरी की भी उन्होंने सूची बना रखी है। इससे अलग ब्रांड का सामान लेने पर छात्रों को डांट सुननी पड़ती है। प्राइवेट स्कूलों की मनमानी से अभिभावक खासे परेशान हैं। सीबीएसई बोर्ड से जुड़े स्कूल पाठ्यक्रम में एनसीईआरटी की ही किताबें शामिल कर सकते हैं, जबकि प्राइवेट स्कूल कमीशन के फेर में निजी प्रकाशकों की किताबें चलवा रहे हैं। निजी प्रकाशक अपनी किताबें लागू करवाने के लिए स्कूलों को कमीशन देते हैं। स्कूलों को भी संबंधित दुकानदारों से 40 से लेकर 50 प्रतिशत कमीशन का लाभ मिलता हैं।
जहां प्राइवेट स्कूलों के द्वारा चयनित किताब दुकानों से किताब खरीदारी का अभिभावकों को निर्देश दिया जाता है। जहां कम से कम तीन हजार लेकर 8 हजार तक अभिभावकों को किताब खरीदारी में रुपए खर्च होते है। इतना ही नहीं, कई स्कूल बच्चों को पूरी कीमत पर खुद ही किताब उपलब्ध करा रही है। वहीं किताब दुकानदार एक रुपए की छूट दिए बिना हस्तलिखित कच्चा बिल ग्राहकों को थमा दे रहे हैं। जबकि सरकार के गाइड लाइन के अनुसार खरीदारी के बाद ग्राहकों को जीएसटी बिल देना अनिवार्य है। अगर किसी ग्राहक द्वारा जीएसटी बिल की मांग कर दी गई तो उन्हें किताब तक नहीं मिल पाता है।
कमीशन खोरी के चक्कर में बच्चों के कंधों पर बस्ते का बोझ बढ़ रहा है। एक विषय की तीन-तीन किताबें बच्चों को स्कूल ले जानी पड़ती हैं। बच्चे आठ विषयों के लिए कुल 24 किताबें अपने बस्ते में रखते हैं। इससे बस्ते में आठ से दस किलो तक वजन हो जाता है। बच्चों को पढ़ाई के बोझ से अधिक बस्ते का बोझ झेलना पड़ रहा है। सिलेबस तय करने में स्कूलों की ओर से मनमानी की जाती है। चंद विषयों की पढ़ाई के लिए बच्चों को सभी कॉपी किताबें लेकर जाना पड़ता है। एक विषय की दो- दो किताबें और तीन- तीन कॉपियां होती हैं। यही नहीं बैग में मौजूद इन कॉपी किताबों की कीमत भी एक हजार रुपये से लेकर पांच हजार रुपये तक होती है। यह भी कमीशन के आधार पर तय होता है। मसलन कोई प्रकाशन अपनी किताबों के लिए ज्यादा कमीशन दे, तो उसकी किताबें सिलेबस में शामिल कर ली जाती हैं। शिक्षा सत्र शुरू होने से पहले ही बुक सेलर स्कूलों के चक्कर काटने शुरू कर देते हैं। स्कूल संचालकों को तरह-तरह की स्कीम बताते हैं और कमीशन भी ऑफर करते हैं। सूत्रों के अनुसार बुक सेलर किताबों की बिक्री के मुनाफे का 60 प्रतिशत तक स्कूलों को ऑफर कर देते हैं। मोटा कमीशन मिलने के लालच में स्कूल संचालक कोर्स बदल देते हैं। बस फिर तो बुक सेलर की मनमानी शुरू हो जाती है। वह कोर्स में अपनी मर्जी से किताबें देते हैं और बच्चों पर ज्यादा कोर्स थोप दिया जाता है। यही कारण है कि बच्चों के बस्तों का बोझ भी बढ़ जाता है।
वही जानकारी के अनुसार लगातार प्रकाशित हो रही खबरों और शिक्षा विभाग की कार्रवाई से बचने के लिए प्राइवेट किताबें को अब स्कूलों और घरों में छुपाया जा रहा है।